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जीवन कथाएँ >> मैं तो ठहरा हमाल

मैं तो ठहरा हमाल

आप्पा कोरपे

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 689
आईएसबीएन :81-263-561-4

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मराठी में प्रतिष्ठित और बहुचर्चित औपन्यासिक आत्मकथा...

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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मराठी में प्रतिष्ठित और बहुचर्चित इस औपन्यासिक आत्मकथा का अपना एक अलग रंग और प्रभाव है। दरअसल,‘मैं तो ठहरा हमाल’ सही अर्थों में वाचिक परम्परा की गद्य-कृति है। इसमें लेखक या कहें वाचक-ने अपने अनगढ़ जीवन के सुख-दुःख और बेबसी-बेचारगी के साथ ही समकालीन समय और ग्रामीण समाज के संघर्ष, भोग और बेगानेपन को भी सीधे-सादे तरीक़े से कहने-बताने की कोशिश की है।

जीवन जीने के ढंग, उसकी आपाधापी और छटपटाहट, सम्बन्धों को लेकर असमंजस, उल्लास और उत्कण्ठाएँ तथा भयावह नंगी सच्चाइयाँ-इन सब का ताप इस कृति में है। इसमें हर चरित्र, घटना और परिवेश गति में रूपाकार लेती झाँकियों की तरह है-शुष्क, तरल, निर्मल और पारदर्शी ‘मैं तो ठहरा हमाल’ में एक ऐसे भावलोक का सृजन है, जहाँ स्वरों के हर चढ़ाव-उतार में ज़िन्दगी के छन्द की अनुगूँज है।..

 प्रास्ताविक

मराठी साहित्य में आत्मकथा लेखन की परम्परा काफ़ी पुरानी है। 1882 के पूर्व में भी नाना फड़नबीस, वासुदेव बलवन्त, विष्णुबुवा ब्रह्मचारी जैसे महापुरुषों ने अपनी जीवनी से सम्बन्धित लेखन ज़रूर किया लेकिन उसका स्वरूप वर्तमान आत्मकथाओं की तरह परिपूर्ण नहीं था। मराठी की पहली आत्मकथाकार थीं रमाबाई, रानडे, जो मशहूर समाज सेवक न्यायमूर्ति महादेव गोविन्द रानडे की पत्नी थीं। उन्होंने अपनी ‘आमच्चा आयुष्यातील काही आठवणी’ नामक पुस्तक 1910 में लिखी जिसमें अपने पति के सन्दर्भ में गौरवपूर्ण स्मृतियों का जिक्र बार-बार किया है। इसके बाद 1960 तक कई आत्मकथाएं लिखी गयीं जिनकी विशेषताएँ थी यथार्थ घटनाएं, गति जीवन की स्मृतियाँ, निवेदन पति और पत्नी के मदभेद, शिकायतें, निजी अनुभवों के माध्यम से व्यक्त समाजिक इतिहास, जीवन्तता, सूक्ष्मता उद्बोधकता आदि। आत्माकथा लेखन करने वालों की दृष्टि भले ही साहित्यकार की न रही हो लेकिन उनके लेखन में साहित्य की कई विशेषताएँ नज़र आती हैं।

मराठी में महिलाओं ने काफ़ी आत्मकथाएँ लिखी। समय के साथ उनके लेखन में बहुत परिवर्तन हो रहा है। रेव्ह. नारायण वामन तिळक की पत्नी लक्ष्मीबाई तिळक ने ‘स्मृतिचित्रे’ नाम की आत्म कथा लिखी (1934 से 1938 के बीच लिखी गयी), जो आज भी एक श्रेष्ठ आत्म कथा मानी जाती है। इस आत्मकथा में लक्ष्मी बाई ने ईमानदारी से तत्कालीन समाज के साथ धार्मिक अवधारणाओं का भी सशक्त चित्रण किया है। लक्ष्मीबाई के लेखन में गम्भीर वैचारिकता के साथ-साथ असाधारण व्यंयात्मकता भी है। 1960 से लेकर आज तक विभिन्न क्षेत्र और वर्ग की महिलाओं ने विविध आत्मकथाएं लिखीं। इन आत्म कथाओं में निजी अनुभूतियों की अभिव्क्ति के साथ-साथ परिवार और समाज से टकराने की शक्ति भी दिन-ब-दिन बढ़ती नजर आ रही है। मशहूर समाज सेवक, पत्रकार, लेखक आदि की पत्नियाँ भी आत्मकथाएं लिख रही हैं। बड़ी मुक्त मानसिकता से लिखी गयी ये आत्मकथाएँ लोकप्रिय भी हो रही हैं और कभी विवादस्पद भी बनी हैं। महिलाओं के आत्मकथन अपवादात्मक रूप में पाठकों के मन में करुणा भाव पैदा करने की क्षमता के साथ ही उन्हें विचार-प्रवण बनाने की शक्ति भी परखते हैं। इन आत्म कथाओं में पुरुष के प्रति (खास तौर पर पति के साथ) आक्रोश और विद्रोह का भाव ज़रूर है लेकिन दलित और पीड़ित आत्म कथन के तेज़-तर्रार तेवर उनमें नज़र नहीं आते है। मराठी में इतनी बड़ी संख्या में और पूरी आज़ादी से महिलाओं ने जो आत्मकथाएँ लिखीं उसका कारण महाराष्ट्र में चल रहे समाज-सुधार के आन्दोलन और स्त्री-शिक्षा का विकास है। उन्नीसवीं सदी के द्वितीयार्द्ध में महाराष्ट्र में नवोत्थान की लहर में उदारमतवाद का ऐसा वैचारिक आन्दोलन चला जिसमें हिन्दी समाज के विविध दोषों पर समीक्षात्मक दृष्टिपात था। वर्ण और जाति-व्यवस्था के खिलाफ वैचारिक स्वर प्रबल था। नारी की शिक्षा और व्यक्तिगत विकास पर उत्तेजक बहसें थीं, धर्म-परिवर्तन को लेकर विवाद का बवण्डर था, भारतीय जीवन-दृष्टि और मूल्य-श्रेणी की अच्छी-बुरी जाँच पड़ताल थी, पश्चिमी मूल्यों के प्रति जिज्ञासापरक चिन्तन था। इसके फलस्वरूप नारी की स्थिति को लेकर हरि नारायण आपटे ने ‘पण लक्षात कोण घेतो ?’ जैसे श्रेष्ठ उपन्यास भी लिखा। स्वतन्त्रता, समता, विश्वबन्धु को स्वीकार कर नये युग की परिकल्पना करते हुए केशवसुत ने जोशभरी कविताएँ लिखीं। जाम्भेकर, लोकहितवादी, आगरकर, तिलक, चिपलूणकर इत्यादि ने तेजस्वी गद्य लिखा। परिणाम स्वरूप महिला की शिक्षा को लेकर महर्षि धोंड़ो केशव कर्वे जैसे महान् व्यक्ति ने स्त्री-शिक्षा के लिए स्वतन्त्र विद्यापीठ की स्थापना की। इसके पहले फुले जी ने निम्न जातियों में भी शिक्षा के लिए प्रेरणा और उत्साह उत्पन्न किया। स्त्री के व्यक्तित्व विकास को लेकर अनेक आन्दोलन चलाये गये। स्वाभाविक रूप में स्त्री के व्यक्तित्व में सजगता और विकास की आकांक्षा जगी। अपने मूक दु:ख को समाज के सामने प्रस्तुत करने की भीतरी आकांक्षा जगी।

विभिन्न व्यवसाय, क्षेत्र और वर्ग में जुड़े पुरुषों ने भी अपनी आत्मकथाएँ लिखीं। इन आत्मकथाओं की निजी अनभूतियों के साथ-साथ लेखक का चिन्तन, समाज के प्रति उसका रवैया विभिन्न क्षेत्रों की जानकारी, व्यावसायिक समस्याएँ आदि के दर्शन होते हैं। ये आत्मतथाएं पढ़कर पाठक रोचकता के साथ जीवन की गम्भीरता को भी ज़रूर महसूस करता है।
1960 के आसपास दलित साहित्यकार द्वारा आत्मकथाएँ लिखी जाने लगीं जो आगे चलकर एक सशक्त धारा-सी बन गयी। इसके पार्श्व में दलितों के मसीहा बाबा साहब अम्बेडकर की प्रेरणा है। दलित और पिछड़ी जनजातियों द्वारा लिखी गयी आत्मकथाओं का प्रमुख स्वर विद्रोह का रहा है। बरसों से चले आ रहे अन्याय, शोषण, अत्याचार और उपेक्षा का विरोध इन आत्मकथाओं के केन्द्र-स्थान में रहा हैं। एक ओर जहाँ प्रतिष्ठित समाज के प्रति गुस्से की तमतमाहट और संघर्ष के तेज़-तर्रार तेवर दलित आत्मकथाएँ अभिव्यक्त करती हैं, वहीं दूसरी ओर अपने हालात में परिवर्तन लाने के लिए आन्दोलन की प्रेरणा भी देती हैं। लेकिन प्रारम्भिक स्थिति में दलितों की आत्मकथाएँ जितनी ताज़ी टटकी और अनोखे जीवनानुभव को अभिव्यक्त करनेवाली थीं उतनी बाद में नहीं रहीं। वजह स्पष्ट है। शोषक के प्रति शोषित की प्रतिक्रिया का स्वरूप सामान्यत: एक-जैसा ही होता है। भले ही व्यक्ति अलग-अलग हों, उनका जीवन और जीवन की अनुभूतियाँ करीब-करीब एक-जैसी ही थीं। परिमाणत: दलित और पीड़ित वर्ग के लेखकों के आत्मकथन का एक ढाँचा-सा बन गया; कल्पकता और चिन्तनशीलता के अभाव में ये आत्मकथाएँ अपनी अलग पहचान खो बैठीं। ‘बलुतं’ (दया पवार), ‘उपरा’ (लक्ष्मण माने), ‘उचल्या’ (लक्ष्मण गायकवाड़), ‘राघववेळ’ (नामदेव) आदि दलितों और पीड़ितों द्वारा लिखी गयी आत्मकथाएँ अनेक पुरस्कारों से सम्मानित हो चुकी हैं।

1992 में आप्पा कोरपे की आत्मकथा ‘मी तो हमाल’ मैंने पढ़ी तो मुझे सुखद आश्चर्य हुआ। अभी तक जितनी भी आत्मकथाएँ मैंने पढ़ी थीं वे विशिष्ट जाति, जनजाति अथवा वर्ग के व्यक्ति की स्वयं केन्द्रित आत्मकथाएँ थीं, लेकिन आप्पा कोरपे की आत्मकथा ऊपर निर्दिष्ट मर्यादाओं को लाँघकर भारत के ही नहीं बल्कि दुनिया-भर के हमालों की आत्मकथा-सी लगी। आप्पा कोरपे एक अनपढ़ हमाल थे, जो अपार कष्ट उठाकर अपनी नेकी और हमाल वर्ग के प्रति आत्मीयता के कारण आज ‘महाराष्ट्र राज्य माथाड़ी महामण्डल’ के उपाध्यक्ष पद तक पहुँच गये हैं। उन्होंने आत्मकथा को प्रस्तुत करना क्यों चाहा ? आप्पा कोरपे अपनी आत्मकथा के प्रस्ताविक में कहते हैं- ‘‘हमाल तो हमाल ही होता है ! व्यापारी तो उसे बैल ही मानते हैं। उसके पास कहने लायक क्या होगा भला ! उनके अनुभव भी सुनने लायक होते हैं ! हमाल से भी कोई कुछ सीख ले सकता है, इस पर किसको भरोसा होगा ? फिर भी मैं अपने अनुभव कहने जा रहा हूँ। अपना भरापूरा मन मुझे रिक्त करना है...मेरे अपने अनुभव से आगे बढ़ने की प्रेरणा अगर दूसरों को मिल रही है और उनकी भलाई हो रही है, तो मुझे मेरी कहानी लिखनी चाहिए, ऐसा मुझे लगा।’’ आत्मकथा कहने की प्रेरणा उन्हें मिली महाराष्ट्र के मशहूर समाजसेवक डॉ. बाबा आढाव से। जब हमालों की भरी सभा में कोरपे जी अपने अनुभव कहते तो हमालों को लगता कि ये अनुभव तो उनके अपने ही हैं। आप्पा कोरपे के कथन में अद्भुत प्रभाव था, मित्रभावना थी, आन्तरिक पीड़ा और लगाव था। बाबा आढाव जी को लगा कि आप्पा जी को चाहिए वे अपने अनुभव लिखें। लेकिन आप्पा कोरपे तो अनपढ़ थे, लिखना नहीं जानते थे। वे कैसे लिखते ? अहमदनगर के निवासी और मराठी के विद्वान् प्राध्यापक डॉ. गंगाधर मोरजे ने जब उनकी आत्मकथा उनके मुँह से सुनी तो उन्हें लगा कि यह बड़ी अनोखी वस्तु है। इस अनुभव को लिखित रूप देकर इसे प्रकाशित करना चाहिए। उन्हीं के अनुरोध पर आप्पा कहते गये और उसे टेप करके श्रीमती अश्विनी कावळे ने उसे लिखित रूप दिया। आप्पा कोरपे की इस आत्मकथा की कई विशेषताएँ हैं जो मराठी की अन्य आत्मकथाओं से उसे अलग स्थान दे देती हैं।

जैसा कि ऊपर कहा गया है, आप्पा कोरपे की यह आत्मकथा किसी विशिष्ट जाति या वर्ण के व्यक्ति की कहानी नहीं है, जैसा कि आम आत्मकथाएँ होती हैं। हमाल की जाति तो एक ही होती है, वह हैं सिर्फ़ हमाल की जाति। जाति-व्यवस्था में उच्च-जातियों द्वारा किये गये अन्याय, अत्याचार और शोषण का चित्रण इस आत्मकथा में नही है। यह आत्मकथा जाति और वर्ण-विशेष से ऊपर उठकर हमाली करनेवाले हर शोषित मनुष्य की कथा बन जाती है। हमालों की दुनिया के विभिन्न व्यवहार, मालिकों द्वारा किये जानेवाले बदतर सलूक, हमालों की भयावह आर्थिक स्थिति, व्यसनाधीनता के कारण नरकतुल्य बनी उनकी जिन्दगी आदि का दिल दहलानेवाला विदारक चित्रण मराठी भाषा में पहली बार हुआ है। आप्पा कोरपे ने अपनी आत्मकथा लिखकर उस दुनिया का साक्षात्कार कराया है, जिस दुनिया से हम बिलकुल अनभिज्ञ थे। दलित और विभिन्न जनजातियों के लेखकों द्वारा लिखी गयी आत्मकथाओं में व्यक्त विद्रोह, आक्रोश, विध्वंसात्मक (नकारात्मक) प्रवृत्ति, प्रतिशोध की भावना आप्पा कोरपे की आत्मकथा में कहीं भी नज़र नहीं आती। इसका मतलब यह नहीं कि शोषक का विरोध वे करते ही नहीं। आप्पा अहिंसा के रास्ते को अपनाकर अन्याय और शोषण का घोर विरोध करते हैं। बड़ी मुश्किल से वे हमालों का संगठन बनाते हैं और अन्याय का प्रतिकार करने के लिए आन्दोलन शुरू करते हैं। उनकी आत्मकथा पढ़ने से पता चलता है कि आप्पा अथक कष्ट उठाने के बाद स्तरीय जिन्दगी बिताने लगे हैं। लेकिन वैयक्तिक जीवन की समस्याएँ सुलझ गयीं, समृद्धि आ गयी, खुशियाँ हासिल हुई, इससे वे सन्तुष्ट नहीं हैं। वे चाहते हैं कि हर हमाल का दारिद्रय नष्ट हो, उसके बच्चे पढ़े, बुढ़ापे में माँ-बाप की सेवा करें, अपनी कमाई से रोटी खाएँ और दुर्बलों की और पीड़ितों की सहायता करें। हमालों में, मजदूरों में जागृति हो, उनका विकास हो, इस उद्देश्य से अभी भी आप्पा महाराष्ट्र के गाँव-गाँव जाकर भाषण देते हैं और काम भी करते हैं।

 आप्पा ने औरों की सहायता से और डॉ. बाबा आढाव की प्रेरणा से नगर में ‘हमाल भवन’ का निर्माण किया, हमालों को सस्ते में रोटी मिले इसलिए केन्द्र स्थापित किये, परित्यक्ताओं के लिए संगठन बनाये। आप्पा कोरपे की यह आत्मकथा बताती है कि दूसरों के प्रति दिल में सद्भाव हो अथक परिश्रम करने की हिम्मत हो तो एक मामूली-सा हमाल भी कितनी ऊँचाई तक पहुँच सकता है। दलितों की आत्मकथाओं में समाज के विरोध के आक्रामक तेवर में खूब लिखा जाता है, वहाँ समाज एक खलनायक के रूप में चित्रित होता है। इसके विपरीत आप्पा कोरपे की आत्मकथा भारतीय समाज के बदलते मानस को व्यक्त करती है, जिसमें यह अभिव्यक्त है कि एक सर्वप्रकार से हीन-दीन आदमी कैसे अपने शारीरिक परिश्रम और वैयक्तिक गुणवत्ता के बल पर ऊपर उठ सकता है। यह आत्मकथा इस मानी में महत्त्वपूर्ण है कि यह आत्मोद्धार का रास्ता अपने बल पर तय करने की प्रेरणा देती है। यह आत्मकथा यह विश्वास पैदा करती है कि समाज पूरा सड़ा हुआ नहीं है, अभी भी कुछ संभावनाएँ हैं।

आप्पा कोरपे की आत्मकथा मौखिक (या वाचिक) साहित्य-परम्परा से मिलती-जुलती-सी है। उनका ठाठ लोककथा कहनेवाले कलाकार का है। वे लम्बी-लम्बी वाक्य-रचना नहीं करते। उनके छोटे वाक्य पाठकों की जिज्ञासा लगातार बढ़ाते रहते हैं। उनकी भाषा भी लोकभाषा है। अपनी ज़िन्दगी को उन्होंने तटस्थता से देखा है, इसलिए उनका कथ्य भी उनकी तटस्थ वृत्ति का परिचायक है।

अनपढ़ होने के बावजूद आप्पा सुसंस्कृत हैं और विवेकी हैं। वे अन्धश्रद्धा से दूर रहते हैं। और लोगों को दूर रहने के लिए प्रेरित करते हैं। इस तरह आप्पा कोरपे की यह कथा अन्य आत्मकथाओं से मुझे बिलकुल अलग लगी। एक हमाल की यह कहानी ‘उद्धरेत आत्मनो आत्मान:’ का सन्देश देती है। एक अन्य कारण से भी मुझे यह आत्मकथा महत्त्वपूर्ण लगी। भारत में साठ प्रतिशत जनता निरक्षर और लिखने में समर्थ व्यक्तियों का अनुपात तो भयानक रूप में कम है। मेरा जन्म छोटे से गाँव में हुआ। मैंने गाँव की स्त्रियों को, मेहनतकश किसानों को निकट से देखा है।

 मुझे लगा कि वे निरक्षर हैं लेकिन संस्कृतिहीन नहीं हैं। यह अद्भुत बात है कि निरक्षर भारतीय जनता इतनी संस्कारवान है कि पढ़े-लिखे लोगों से भी अधिक अच्छी है। महान् बांग्ला लेखिका महाश्वेता देवी ने कहा था कि आदिवासी अनपढ़ लोग तथाकथित नगर शिक्षितों से भी ज्यादा संस्कारवान हैं। अगर इस जनता में छिपे गल्पकारों, वक्ताओं की अनुभवराशि को टेपरिकॉर्ड पर अकिंत किया जाए और उसे अक्षरबद्ध किया जाए तो कितना कुछ वाङ्मय पैदा हो सकता है। बहुत अनपढ़ लोगों के साथ अनुभवों का अनोखा, अथाह खजाना है जो साहित्य रूप ले सकता है। इससे बोली-भाषा का देशी पुट मिलाकर भाषा भी अद्भुत रूप से जीवन्त हो सकती है, शक्तिशाली हो सकती है। मुझे लगा कि भारत के विभिन्न राज्य के लोग ऐसे साहित्य को पढ़े और प्रेरणा पाएँ; और केवल हिन्दी के माध्यम से ही यह सम्भव था। हिन्दी ही सबको जोड़ती है, मिलाती है, इसलिए मैंने यह हिन्दी अनुवाद सिद्ध किया है।

-लीला बान्दिवडेकर


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